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एक दिशा, एक एहसास, नयी शुरुआत और एक कोशिश...यहीं से शुरू है यह छोटा सा प्रयास...अपनी अनुभूतियों के निर्झर स्रोत को एक निश्चल और अंतहीन बहाव देने का...

My Poems and Songs

Friday, November 30, 2007

अमलतास ने ली अंगड़ाई है...



अमलतास ने ली अंगड़ाई है...

आज फिर धरती पीत फूलों से नहाई है
मस्त बयारों में मंद-मंद छटा मुस्काई है
डाल-डाल फूलों ने लड़ियाँ भी सजाई हैं
देखो फिर अमलतास ने ली अंगड़ाई है।

झर झर झरें फूल पीली बहार आई है
मन मयूर नाच उठा बज उठी शहनाई है
धरा के इस सौंदर्य से सृष्टि भी इठलाई है
देखो फिर अमलतास ने ली अंगड़ाई है।

चहुँ ओर अनंत पीत चादर चढ़ आई है
खिल-खिल फूल हँसे खुशी की गूँज छाई है
धरा के इस शृंगार से ऋतु भी तरुणाई है
देखो फिर अमलतास ने ली अंगड़ाई है।

सूरज किरणें समेट पीत वर्षा बरसाई है
इन फूलों के सौरभ ने मदमस्ती छलकाई है
धरा के इस रूपरंग से वेला भी शरमाई है
देखो फिर अमलतास ने ली अंगड़ाई है।

© अरविन्द

16 जून 2007



यों मिली खुशी...


यों मिली खुशी...

फूलों के रंग से, सौरभ और मकरंद से
पवन की तरंग से, समीर के स्पंद से
यों मिली खुशी,
वसुधा के इस विहंग से।

भँवरे की गुंजन से, तितली की उमंग से
पाखी के रंजन से, दिलों के मृदंग से
यों मिली खुशी,
वसुधा के इस संगम से।

मौसम के बसंत से, महुए की सुगंध से
पीत के अनंत से, बयार की गंध से
यों मिली खुशी,
वसुधा के इस आनंद से।

प्रेयसी की प्रीत से, मन के मीत से
वादी के संगीत से, कोयल के गीत से
यों मिली खुशी,
वसुधा की इस रीत से।

© अरविन्द

9 सितंबर 2007

याद आते हैं वे खेत और खलिहान


याद आते हैं वे खेत और खलिहान

याद आते हैं वे खेत और खलिहान
लहलहाती सुनहरी बालियाँ मस्त पवन में
वह सरसराहट वह चहचहाहट दूर गगन में
मुस्कुराती सुनहरी धूप धरा के आँगन में।

याद आते हैं वे खेत और खलिहान
गेहूँ काटती बालाएँ चटकीले परिधानों में
गूँजती हँसी चहुँ ओर आसमानों में
बिखेरती रसीली फुहार मीठे गानों में।

याद आते हैं वे खेत और खलिहान
अठखेलियाँ बचपन की बौराए आमों में
अल्हड़ मस्ती झूमती बहती तरंगो में
कोयल की मीठी गूँज मस्त बयारों में।

याद आते हैं वे खेत और खलिहान
ढलती शाम लौटते पाखी नीड़ों में
जुगनुओं की चमक तारे परोसे थालों में
थकते कदम लौटें घरों के उजियारों में।

© अरविन्द

9 सितंबर 2007

शाहजहाँ को फिर न लेना पड़े जन्म



शाहजहाँ को फिर न लेना पड़े जन्म

मेरे एक विदेशी मित्र ने कहा
अपने देश के किसी अजूबे के बारे मे बताओ
फिर क्या था हमने भी तपाक से
कर दी ईमेल ताजमहल की तस्वीर
और चाव लेकर बता डाला
उसका सारा इतिहास।

वापस जवाब आया
ताजमहल बहुत सुंदर लगा
और इतिहास भी बहुत है रोचक
संगमरमर की इस इमारत की कोइ साख नहीं
हमारा मन खुश हुआ
चलो उनको ताजमहल अच्छा लगा।

मगर उनकी अगली पंक्ति ने कर दिया स्तब्ध
मानो घड़ों पानी दिया उड़ेल
पूछा की ताजमहल तो ठीक है
मगर उसके पीछे काले पानी की
बहती धारा है क्या?
सफ़ेद इमारत और काले पानी का क्या है मेल?
आपकी राजनीति का क्या यह है खेल?

बात में दम था, दिमाग़ हमारा सन्न था
मन में ख़याल दौड़ गया
सशक्त राजनीतिज्ञों के अभाव में
शायद शाहजहाँ को फिर न लेना पड़े जन्म
इस बार ताज के लिए नहीं
बस सिर्फ़ इसलिए कि,
प्यारी यमुना फिर बहे सुंदर सहज।
प्यारी यमुना फिर बहे सुंदर सहज।
प्यारी यमुना फिर बहे सुंदर सहज।

© अरविन्द

9 जून 2007


Thursday, November 15, 2007

ओ मेरी प्यारी वादी


ओ मेरी प्यारी वादी

तेरे बिना न होती
सुबह की सुनहरी धूप
न होता अठखेलियाँ करता वो पवन
और न ही मचलते मासूम सुमन।

हिमालय की न होती हिमाच्छादित चोटियाँ
न ही होती सफ़ेद कोरी चादर निश्चल
और हरियाले मैदानों पर न रंग बिखेरती तितलियाँ
हाँ यही तो थीं मेरी प्यारी वादियाँ।

पर अब कहाँ है वो धूप
न ही हैं धवल चोटियाँ
कहाँ है वो निश्चल पवन
बस हैं अब नंगे पहाड़ और मैला पवन।

निगाह गड़ाए हैं हम पर
शिकायतों का पुलिंदा लिए
जो निर्झर स्रोत बहा करते थे कल-कल
अब बहा रहे हैं आँसू अविरल।

बेबस भीगी नज़रें कह रही हैं मानों
बस भी करो अब निर्दयी मानव
ऐसा न हो हमें कर खाक
खुद हो न जाओ तुम ही खाक।

9 जून 2007

© अरविन्द