ओ मेरी प्यारी वादी
तेरे बिना न होती
सुबह की सुनहरी धूप
न होता अठखेलियाँ करता वो पवन
और न ही मचलते मासूम सुमन।
हिमालय की न होती हिमाच्छादित चोटियाँ
न ही होती सफ़ेद कोरी चादर निश्चल
और हरियाले मैदानों पर न रंग बिखेरती तितलियाँ
हाँ यही तो थीं मेरी प्यारी वादियाँ।
पर अब कहाँ है वो धूप
न ही हैं धवल चोटियाँ
कहाँ है वो निश्चल पवन
बस हैं अब नंगे पहाड़ और मैला पवन।
निगाह गड़ाए हैं हम पर
शिकायतों का पुलिंदा लिए
जो निर्झर स्रोत बहा करते थे कल-कल
अब बहा रहे हैं आँसू अविरल।
बेबस भीगी नज़रें कह रही हैं मानों
बस भी करो अब निर्दयी मानव
ऐसा न हो हमें कर खाक
खुद हो न जाओ तुम ही खाक।
9 जून 2007
© अरविन्द
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