रह रह कर उमड़ आतीं हैं तरंगें मेरे मन में
मन करे कि हाथ बढ़ा कर कैद कर लूँ मुठ्ठी में इन्हे
न कलम चाहिए न कागज़ चाहिए बस वह तरंग चाहिए
हिमालों से बहकर जिसकी अनुगूंज बस जाए मुझ में
मेरी वादियों को छूकर फूलों के बीच से सुरभित
हल्के से मेरी वादियों की शैफलियाँ बसा जाए मुझ में
शैलों की गोद से उमड़ती नदियों से निकलती निश्चल
हौले से उन्मादित कर मकरंद फैला जाए मुझ में
रंगों के अनगिनत छींटें पड़े हैं मेरे मन मे अमिट
रंगों के अनगिनत छींटें पड़े हैं मेरे मन मे अमिट
इनकी फुहारों से सराबोर हो जाए साँसें मुझ में
बह जाना चाहता हूँ में तो बस इन तरंगों में उन्मुक्त
फिर क्या फर्क पड़ता है कि में इनमे समां जाऊं या ये मुझ में